मातृभाषा की व्यथा
मातृभाषा की व्यथा


एक दिन मेरा बच्चा रोता रोता घर में आया,
पड़ी मार स्कूल में उसको, मुझको ये बतलाया।
गाल लाल भी देखा उसका, मैंने उसी को कोसा,
दोष ज़रूर उसी का होगा, मन में मैंने सोचा।
उसकी बड़ी बहिन ने मुझको जब कारण समझाया,
सीधे मैं विद्यालय भागा, खुद को रोक न पाया।
बात हुई यूँ , बोली हिंदी सहपाठी से अपने,
मैडम जी ने मारा थप्पड़, देखा जिसको सबने।
इसी बात को लेकर उसका, रोज़ नाम था जाता
मिलनी थी अब बड़ी सजा, थप्पड़ क्यों रुक पाता।
पर मै
ं रुका, ठिठककर थोड़ा, नेता जी को देखा,
प्राचार्या जी के दरवाजे खिंची थी लक्ष्मण रेखा।
लिए सिफारिश एक बच्चे की, अंग्रेजी सिखलाएँ,
'डोनेशन' जितना भी मांगो, कल ही हम दे जाएँ।
'भारत' से 'इंडिया' बना जो सचमुच देश महान,
मरी आत्मा बाशिंदों की 'रीमिक्स' है जान।
बच्चों को फिर कहाँ पढाऊँ, प्रतिक्षण दिल घबराता,
प्रिंसिपल के दरवाजे से फिर खाली आ जाता।
यही व्यथा इस करुण हृदय की, करता रहता है धिक्कार,
क्यों कर अपने देश में बच्चे, निज भाषा पर खाएं मार।