सुवागी २
सुवागी २
शाम बस ढलने को थी,
मेरे अंदर एक आग बुझ सी रही थी।।
ये मौसम भी अजीब सा था,
थोड़ी बेचैनी और गहरे इंतजार से भरा था,
ये इंतज़ार ही तो था,
जो बेहद गहरा था,
शाम बेहद लंबी थी,
और उजाले के हिस्से वक्त थोड़ा था,
शाम बस ढलने को थी,
मेरे अंदर एक आग बुझ सी रही थी।।
जैसे धीमे आंच पर आहिस्ता सुलगती हो गीली लकड़ी कोई,
सुकून को तरसता बैरागी कोई,
कुछ यूं ही था मैं,
हिजर में उठी तड़पन को बस पी रहा था मैं,
गीत भी चुप से रहते हैं,
कलम और कागज़ भी एक दूसरे से खफा रहते हैं,
शाम बस ढलने को थी,
मेरे अंदर एक आग बुझ सी रही थी।।
मेरा मुझमें कुछ खोया था,
मेरे हाथों से मेरा साथ छूटा सा था,
काश ये सर्द हवाएं बस चुप चाप ही गुज़र जाएं,
जो ठहरी ये पल भर को तो कहीं कोई ज़िक्र ना बयां हो जाएं,
सुनसान सी गली में बस सन्नाटा ही हर ओर था,
कभी लौटना ना था जिसे आंखों में उसका इंतज़ार था,
शाम बस ढलने को थी,
मेरे अंदर एक आग बुझ सी रही थी।।
वो जो छुअन हैं वो ठहरी अभी भी यहीं हैं,
एहसास बीता सा हैं पर निशान यहीं हैं,
ये छोर दो जो गलियों के हैं,
ना जाने किस डगर पर मिलने को हैं,
आज ठहरी थी बेचैनी दहलीज पर आकर,
मानो मेरा चैन ले गया था विदा उसकी आहट को सुनकर।।
ये ठिठुरन एक एहसास था जो कलम का होने को बेताब था,
शाम वो ऐसी थी बीती की दिल सवेरा ना चाहता था।।