सरफेस
सरफेस
शादी नई नहीं,
पुरानी थी,
एक, दूजे की आदतों से,
विद्रोह करने की ठानी थी,
हर बात में तू-तू मैं, मैं
हो जाती थी,
छोटी सी बात,
बतंगड़ बन जाती थी.
श्रीमान जी, सुबह सुबह ही
उठकर ड्राइंगरूम में आये,
थोड़ा फ्रेश---थोड़ा मुस्कुराए,
पत्नी हाजिर थी,
चाय के प्याले के साथ,
पर थोड़ी ही देर में,
श्रीमान जी भन्नाए,
सुधा---, चिल्लाए,
क्या है?? अब क्यों गुर्राए?
तुम कब सलीका सीखोगी?
हर सरफेस पर---
समान नज़र आये,
तंग आ चुका हूँ,
सोफे पर किताब,
टेबल पर रिमोट--
दवाइयां,
चश्मे का केस,
बिसकिट्स के पैकेट--
डायनिंग टेबल पर,
लाई सब्जियां औंधी पड़ी हैं,
और ये जूठे कप?
नाश्ते की प्लेट?
क्या इतने महंगे फर्नीचर,
सिर्फ इस
लिए जुटाए?
कहाँ बैठूं?
तुम्हारे सर पर---
हर सोफा समान से लैस,
पर मैं तो तुम्हारे सर पर भी नहीं बैठ सकती?
गंजे सर से फिसल,
कौन अपनी हड्डियां तुड़वाये?
पत्नी के दुर्वचन आये,
मजाक मत करो---
पति महोदय अब,
भौंकते नजर आए,
पूरे दिन यही नज़ारा था,
तो तय था, पत्नी ने,
खुद को नहीं सुधारा था.
भिड़ते-भिड़ते दोनों ही
पस्त नज़र आये,
लेटे बिस्तर पर,
अब दोनों ही---
कुछ शांत नजर आए,
कुछ ही देर में पत्नी को,
महसूस हुआ कंधे पर,
एक हाथ---
अब पत्नी के,
गुर्राने की बारी थी,
जीती, जगती नारी हूँ,
"सरफेस" नहीं हूँ,
जहां रख रहे हो अपना हाथ,
बेशक उड़ लो हवा में----
खबरदार जो सरफेस समझ,
हाथ टिकाए-–-