धरती ने ली अंगड़ाई
धरती ने ली अंगड़ाई
चंद शीत औ' कोहरे की परतें,
कालचक्र को कब रोक पाई हैं,
दबे से इक मासूम बीज को,
लाने की खातिर बाहर---
प्रभाकर रश्मियां गरमाई हैं,
कसमसा उठी है धरा,
उठ देख! मनुज जरा,
धरती ने ली अंगड़ाई है.
धरा स्त्री सम,
जन्म देने की खातिर,
करने इंसान की क्षुधा को तृप्त
फसलों की सौगात लाई है,
चटख उठा बसंत चहुं ओर,
धरती ने ली अंगड़ाई है.
कसमसा उठे हैं भाव ही भाव,
सृजित होने की खातिर,
मस्तिष्क की धारा पे,
एहसासों की रिमझिम फुहार,
फैला देने को प्यार ही प्यार,
आम्र मंजरी बौराई है,
महुआ बिखेरेगा सुगंधि,
आने को है फाग ऋतु,
धरा ने ली अंगड़ाई है।
