घुंघरू
घुंघरू
(1)
मैं कल्पना---, मैं बेलगाम---
मैं मदमस्त गज,
मैं कुलांचे भरती हिरणी,
मैं निर्बाध दौड़ती अश्व--
तुम कवि, तुम महावत,
तुम अश्वारोही---
बांध ही दो न,
कुछ जंजीरें मेरे पांवों में,
वरना ये बेलगाम कुलाचें,
ये अश्वों की टापें---
एक गलत उदाहरण रख ही जाएंगी,
समाज के एक हिस्से को,
बिगाड़ ही जाएंगी---
जरूरी है अंकुश,जरूरी है लगाम,
तुम न लगाओगे--
मैं खुद ही
ये बेड़ियां पहन आऊंगी,
मैं बेलगाम----
(2)
देख रहे हो?
इस अंकुश और लगाम का असर--
अब मुझ में भी है,
सही ,गलत का डर,
हर कदम सही राह पर---
उठता नजर आता है,
मन मयूर हुआ जाता है---
मेरा कत्थक, मेरा भरतनाट्यम,
बटोर रहा है, असंखय तालियां,
पांव आलते से लाल हुआ जाता है,
और सुनो तो ये घुंघरू क्या फरमाते हैं?
मोहे आई न जग से लाज,
मैं इतना झूम के नाची आज,
के घुंघरू टूट गए-----