"हास्य व्यंग"
"हास्य व्यंग"
ऐसे कैसे!कवि,
जबरन गीत सुनाते हैं।
नहीं सुनते यदि श्रोता,
दादागिरी बताते हैं।
शब्द तो मिलते नहीं,
हंसते और हंसाते हैं।
उनकी हरकतो से,
हम तो तरस खाते हैं।
न तो भाव होते हैं,
न तो शुद्ध विचार।
धर्म नीति छोड़ी,
छूट गया आचार।
मैं सुन रहा था,
और गुन रहा था।
बैठा था अनुशासन में,
पर मन रो रहा था।।