कहानी घर-घर की!
कहानी घर-घर की!
ये तुम्हारी या मेरी नहीं अपनी,
है ये कहानी घर-घर की।
हर स्त्री की होती हैं सौतनें दो चार,
पतिदेव उनके जिनसे करते बेहद प्यार।
हमारे यहाँ वो एक दो नही पूरी हैं पाँच,
नहीं विश्वास, सांच को ना कोई आँच।
लाइन है, पूरा अंबार है इनका,
कब्ज़ा है हर जगह इनका।
पतिदेव को लागी ऐसी लगन,
हमेशा हैं वो इनमे मगन।
चलो सबकी छोड़ो मैं अपनी पर आती हूँ,
आज़ एक मजेदार राज़ बताती हूँ।
कभी अख़बार से हुई है जलन किसी को,
किया है चिंतन इस पर किसी ने।
क्या है कि इनके आते ही,
अल्लसुबह पतिदेव यूँ हुए लापता।
कि सोचे छपवा दे, इनकी ही खबर
लिविंग रूम कभी बाल्कनी में डाली नज़र।
दी आवाज़ें, रिप्लाइ तो छोड़िए,
पिन ड्रॉप साइलेन्स सा है छाया।
डरते डरते स्टडी में जो झाँका,
लगा आज़ पकड़ा चोर कोई बांका।
ध्यान से देखे तो समझ में आया,
हमारे पतिदेव की है ये माया।
छुप छुप आँखें भर निहारे मेरी सौतन को,
हाथ से पकड़े, सम्हाले वो इस वुमन को।
अरे ये आज़ की नहीं,
बात है हर दिन क
ी।
कभी यहाँ, कभी वहाँ,
उसे ही देखते हैं हम।
और सोचा करते हैं,
कागज के वो टुकड़े का नसीब,
वाह भई वाह!
पतिदेव का उनसे लगाव,
कि कभी टेबल, कभी सोफे, कभी दीवान
यत्र तत्र सर्वत्र व्याप्त!
हर जगह हम उसे ही देखा करते हैं।
इंतिहा तो हुई जब-
हमने उनसे की बयान,
अपनी हाल-ए-तन्हाई।
और ज़बाव आया, बिना नज़रें हटाए
अख़बार से, कि बहुत खूब
क्या बात सुनाई तुमने, मजेदार!
हम भी कम ना थे,
शुरू की पुरानी कुछ बातें,
हम कुछ कहें,
सिर गड़ाए अख़बार में,
समझे बिना, वो करे हूँ हाँ।
थक हार हम अब चले,
किचन की ओर, दिखाने अपना कमाल।
चलो चूल्हे से करे अब दुआ सलाम
मेरी ये बहने तो आएँगी रोज़ाना
मुझे तो अभी बनाना है खाना।
ये तो निरा मज़ाक,कोरी शरारत है,
बस एक दिमागी कीड़े की हरकत है।
गिलेशिकवे सभी भुला, हम मुस्कुरा दिए हैं।
खबर को ही हम, आज़ खबर बना दिए हैं।