संभल जा इंसान
संभल जा इंसान
लगता है इंसान की अपनी सोच पर पर्दा पड़ा है
इतनी महामारी और मौत के तांडव पर भी
एक दूसरे पर क्यूँ लाठी बरसा रहा है।
संभल जा इंसान और कितना वैमनस्य पालेगा
हर सर मौत मंडरा रही इतनी सज़ा क्या काफ़ी नहीं
जो गलती पर गलती कर रहा है।
और कितना अच्छे से समझाए ईश्वर,
जो बंगाल में तू कहर बरपा रहा, कितना ज़हर,
कितनी नफ़रत किसके कहने पर तू इतरा रहा है।
अपनी सोच की सीमा नहीं जो कठपुतली बन नाच रहा,
कब समझेगा मोहरा है तू उल्लू अपना सीधा करने
उपयोग तेरा हो रहा है।
क्यूँ देश में अशांति फैला रहा है शायद
अक्ल गिरवी रखी है या चंद रुपयों की चाह में
पाप का भागीदार होता जा रहा है।
दोस्त नहीं तू नाहि दुश्मन तू न किसी का साथी
किसके कहने पर तू मानव सर इतने काट रहा,
सियासती शतरंज पर तू क्यूँ बारूद बनकर बिछ रहा है।
अब तो ठहर जा इंसान बन जा ईश्वर की अवहेलना मत कर
सोचता नहीं क्यूँ करतूतों से अपनी ज़लज़ले जहाँ में ला रहा है।