शरणार्थी
शरणार्थी


मैं आज घूम आया,
कश्मीर की हसीन हरी भरी वादियों में,
जो वाकई हसीन थी,
दिलों में नफरत,हिंसा,धर्मांधता से पहले
पर अब बारूद की गंध फिज़ा में घुली है,
और अजीब सी खामोशी दिल में लिए
चिनार के वृक्ष अब भी पंक्तियों में खड़े हैं,
और अचरज भरी नज़रों से
मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं,
पर उनकी बूढ़ी आंखे धुंधली सी जान पड़ती है मुझे।
मैं ख़ामोश बैठा डल झील के किनारे
देर तक सोचता रहा,
पानी के ठहराव को निहारता रहा,
देखता रहा उन खंडहरों को,
जहां अब भी चूड़ियों की खनक
पायलों की छन छन,
बच्चों की हंसी,किलकारियां,
और सूफियाना संगीत गूंज रहा था।
मुझे बहुत ख़ुशी थी कि मैं वर्षों बाद आज वहां खड़ा हूं
जहां मेरे पूर्वजों का ठौर ठिकाना हुआ करता था।
कभी नंदिमार्ग, प्रानकोट,रानीपुरा
जैसे अनेक गांव हमसे आबाद थे,
पर आज सब ख़ामोश डरे सहमे
भयभीत ज्यूं के त्यूं खड़े जर्जर हालत में हैं,
और अपने पर हुए जुल्म की गवाही दे रहे हैं।
वो खंडहर वो खिड़कियां
उसके पीछे टूटे दिलों की सिसकियां,
सब बहुत कुछ कहना चाहती हैं
मगर खौफ से हो
ंठ सिले हुए चुप हैं।
चुप तो वहां सभी हैं,
आंखों में पराया पन लिए,
और उनकी घूरती आंखे
टोह रही थी मुझे,
लगातार अजनबियों की तरह।
मैं यहां वहां तलाश कर रहा था,
पुरखों की यादों को,
अपने बचपन को,
उन क्रूर रातों को,
उस दर्द को,
उस अधूरी मुस्कान को,
जो हमारे पीछे छूट गया था वहीं कहीं,
मुझसे या मेरे पुरखों से,
जब भगाया गया था हमे रातों रात
खूनी कट्टरपंथी तलवारों के साए में
धर्मांधता के शोर् में,
"कश्मीर हमारा है,
तुम काफिरों को जाना होगा"
ये कह कर।
वो पुरानी धुंधली तस्वीरें,
चीखें,डरी हुई बेबस आंखें,
हर कहीं बिखरा हुआ खून,
कटी हुई लाशें,ना जाने क्या क्या,
सब समा गया झेलम और चिनाब के पानी में बेशक,
पर आंसुओं को बहाते शिकारे,
डल झील में विचरण तो जरूर करते हैं अब भी,
पर दबी सिसकियों के साथ।
मैं अब भी उम्मीद करता हूं कि शायद
वो फिज़ा,वो सुकून,वो हंसी लबों पर लौटेगी दुबारा,
या हम हमारे लोग वर्षों से इस दर्द से कराहते,
अपनी जमी जड़ों की जुदाई को दिल में बसाए,
घूमते रहेंगे यहां वहां,
अपने ही देश में शरणार्थी बन कर।