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Vandana Singh

Drama

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Vandana Singh

Drama

पिंजड़ा

पिंजड़ा

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उड़ता हुआ पंछी सिमट गया,

पूछते ही रो कर लिपट गया।

ताकता हूँ खुले आकाश में,

बिखरे हुए दानों में।


उड़ते हुए साथियों को देखकर सोचूँ,

मैं ही तो नहीं दीवानों में,

आखिर ये कसूर किसका है ?

शिकारी का, मेरा, या,

उस भगवान का।


दोष जिसका भी हो,

मैं तो केवल पात्र हूँ,

उस भुगतान का।


मैं जितना भी चाहूँ,

बेड़ियाँ तोड़ नहीं पाया।

अपनी इस काया का साथ,

छोड़ नहीं पाया।


अब तो धीरे-धीरे सन्तोष,

करता हूँ कि,

मेरा जीवन ही पिंजड़ा है,

या पिंजरा ही मेरा जीवन है।


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