मन का रिश्ता
मन का रिश्ता
तेरी नियत से अपने आप तू सँवर जाती है
हो इतनी खास ना हो पास पर निखर जाती है।
तराशा मैंने तुमको जब कलाकारी से अपनी ही
नजर, नजरें मिलाकर तू नजर उतार जाती हैं।
तेरे मन से मेरे मन का रिश्ता मुझको लुभाता हैं
हजारों में कोई बस एक जिगर के पार जाती हैं।
मेरे जज़्बात से वाकिफ़ हो सब क्या बताऊँ मैं
मेरी यह साफ़गोई बात मुझको मार जाती हैं।
तेरी कशिश मेरी चाहत के कुछ तो नाम रहने दे
पूरी न हुई हो दास्ताँ ज़िन्दगी उधार जाती हैं।
कभी इंकार मिलता हैं कभी इक़रार मिलता है
मोहब्बत गर झमेलों में पड़े तो हार जाती है।
सभी ख्वाहिश मेरी तुममें दबी रह जायेगी "नीतू"
बिना आवाज़ के भी तू मुझे पुकार जाती हैं।