क़ुदरत की उल्फ़त
क़ुदरत की उल्फ़त
इक दिन आसमां था नीला
तस्वीर यूँ सजी क़ुदरत की
हरी हरी चुनर सी बिछी
घाटी थी एक पर्बत की
हवाओं ने सोये गुलशन से
महकाने की हसरत की
जाफ़रानी सूरज ने फ़िर
धीरे धीरे ऊपर शिरक़त की
कलियों को गुदगुदाने की
भँवरों ने धीमे से हरकत की
खिलती कलियों ने शर्मा कर
सुर्ख़ अपनी रंगत की
शाख़ों पर पत्ते मुस्कुराये
पेड़ों ने झूलों सी फ़ितरत की
बह उठी शबनम की धारें
जब गरमी हुई क़ुरबत की
रात ऐसी ख़ूबसूरती से
ख़त्म हुई फुरक़त की
महका मन खिली वादियां
तामीर हुई इक जन्नत की
हुआ मिलन दो दिलों का
बीत गयी घड़ी ख़ल्वत की
जी ली कुछ तुमने कुछ मैंने
ऐसी थी कहानी उलफ़त की।