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Shashikant Das

Abstract

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Shashikant Das

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आज के मज़दूर की कहानी

आज के मज़दूर की कहानी

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चार दिन की ज़िन्दगी में न जाने देखे कितने पल,

पर कभी सोचा न था की जीवन में आएगा ऐसा भी कोई कल।


हमेशा सोचता था की देश की आर्थिक

प्रभुसत्ता का मैं भी हूँ एक अभिन्न अंग,

लेकिन आज के आर्थिक स्थिति में मुझे खुद से

लड़नी पड़ रही है अपनी ही आतंरिक जंग।


पूछता रहता हूँ हमेशा खुद से की क्या मेरे

कारण से आया है इस जीवाणु का अंश ?

तो क्यों मिट रही है मेरी हस्ती और

क्यों मिट रहा है मेरा वंश ? 


जब तक कारखानों इमारतों और खेत खलियालों में

काम करता था तब तक था मैं देशवासी,

आज के इस परिस्थि में जब मैंने घर की राह

पकड़ी तो सबने पल्ला झाड़ के बना दिया मुझे प्रवासी।


आज मेरे पदयात्रा की राह के तप में न

जाने कितनो ने सेंकी अपनी रोटी,

देख ली मैंने झूटी आशाओं वाली नेकी

और तरस गया एक खाने के निवाले की बोटी।


दोस्तों आज उन्ही के शब्दों से

देता हूँ अपने कलम को विराम ,

देना चाहता हूँ उनका सन्देश सबको

जो देते हैं हमारे काम में हमें आराम।


अधीर हूँ, आमिर नहीं हुँ मैं।

फ़क़ीर हूँ, काफिर नहीं हुँ मैं।

मज़दूर हूँ, मज़बूर हुआ हुँ मैं।

आत्मबल से भरा हूँ, आत्मनिर्भर हुआ हूँ मैं।


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