वक़्त की हवाएं
वक़्त की हवाएं
छुटपन में
कभी माँ पापा से झगड़ कर
कुछ झल्ला कर
माथे पर त्यौरियां चढ़ाकर
तीखी सी नाक पर गुस्से को बिठाकर
छोटी-छोटी आँखों में बड़े-बड़े मोती जैसे आँसू लाकर
अक्सर की सोफ़े पर सो जाया करती थी मैं।
जब उठती,
तो होता मुझपर मेरा पसंदीदा ओढ़ना
मेरी चंपक, जिसे पढ़ते हुए में सो गयी थी
वो होती मेरे सिरहाने रखी हुयी
गुस्सा हो चुका होता फुर्र
और रसोई से आती महक मैगी की।
वक़्त तो तेज हवाओं की भाँति बेहता रहा,
हम भी सूखे पत्ते थे, हवाओं में उड़ गये।
पर आज भी
सोफ़े पर कभी नींद सी लगती है,
आँखों में आँसुओं की जगह मोटा सा चश्मा हैं,
चंपक न हो कर, लैपटॉप सिरहाने हैं,
ओढ़ना बदल गया, पर डालने वाले हाथ वही है।
शायद वक़्त भी इनके लिए थम जाता है
की माँ पापा पुचकार ले, कुछ और देर
सोते हुए बच्चे को निहार ले, कुछ और देर
शायद ये वक़्त की तेज हवाओं में इतना सामर्थ्य नहीं
मात-पितृ तरु को झकझोर सके।