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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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समय की अरगनी

समय की अरगनी

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समय की अरगनी

अपने ऊपर टँगे हुए

मन के बोझ से

लटक गयी है।

हवाओं के थपेड़े से

झूलता हुआ मन

सूख चला है।

खामोश स्थिर पड़ा पड़ा

हृदय की संगति

का उपक्रम कर रहा है

आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं

जीवन के इतिहास में 

मन की दशा को स्थिर

और शांत देख कर।

जीवन है तो मन है

मुश्किलें जीवन पर हैं

और मन अपनी सुरक्षा में

हृदय की तरफ

आशा भरी नजरों से देख रहा है।

मनुष्य अपनी तरक्की के

सारे औजारों से दूर

खुद और अपनी ब्यवस्था के साथ

जीवन बचाने में मशगूल है

आदतें कहाँ जल्दी जाती हैं

अकेलापन जो जीवन की

सुरक्षा का कवच था

कहाँ सम्भाल पा रहा है आदमी

खैर ये उसकी मुश्किल है

और अपनी मुश्किल का जिम्मेदार

वो खुद है

जब कि अकेलापन जरूरी है

खाली शरीर से नहीं

बस एक अदत मनुष्य

होने के सिवाय

ढेर सारे विचारों से भी

जो आ रहे हैं

जा रहे हैं

और समय की अरगनी पर

टँगा हुआ मन

सूखता हुआ

झूल रहा है उन विचारों के साथ।

जब कि अकेलापन

अद्भुत रूप से

आधुनिक विचारों का सृजन कर रहा है

और सच मे मनुष्य प्रकृति के

इतना करीब मुद्दत बाद आया है।


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