मैं कहीं और थी..!
मैं कहीं और थी..!
मैं ख़ुश थी,
ख़ुद को मार लिया
पर..
ये क्या..!
इतने पीड़ा के बाद
जिसको मारा था
वह तो कोई और था
और मैं ख़ुश थी
मैंने ख़ुद को मार दिया है।
आज रिक्त थीं मेरी हथेलियाँ..
अब पहले सी ख़ुशबू भी नहीं
सुबह-शाम तो अब भी होती है
पर..
पहले सी ना तो वो सुबह है
ना पहले जैसी...!
अब तो अलसाई सी सुबह उलझी हुई
शाम ले के आती है
और रातें ..
अब ख़ुद को झेलती हो जैसे...।
ओह..!
अनजाने में ये क्या हुआ..?
मैं ख़ुद को मारने चली थी
और मार डाला किसी और को..!
मैं तो कहीं और पड़ी हूँ।
ओह..!
समझ नहीं आता
मेरी वेदना
अब कम हुई है
या और....!

