प्रेम
प्रेम
प्रेम की इस कक्षा में,
बहुत बहुत तपना होता है,
इस अद्भुत से तत्व से,
बस मन ही निर्मल होता है,
तुम क्या जानो प्रेम को फिर,
जीना इसको पड़ता है ,
ऐसे ही प्रेम में,
बस कण कण में प्रियतम होता है ,
तप तप कर फिर इस परीक्षा में,
बस प्रेमी निखरता है ,
अद्भुत से आलिंगन में,
हर दुर्भाव धुलता है ,
प्रेम तो वह है जिसमे
मन से मन ही मिलता है ,
देह मिलन हो न हो,
बस आत्ममिलन हो जाता है ,
फिर तो हर कृष्णा,
राधेकृष्ण हो जाता है ,
शरीर हो अलग तो क्या,
बस एकात्म हो जाता है,
मीरा की हर पुकार पर,
श्याम दौड़ा आता है,
शूल का हर पथ भी,
फूलों भरा हो जाता है ,
समझे जो प्रेम को हम,
कुछ अनोखा ही फिर दृश्य होगा,
हर जन का अंतस तो बस
निर्मल ही निर्मल होगा,
समझनी आज हमें पुनः
प्रेम की परिभाषा है ,
प्रेम पहनना,प्रेम ओढ़ना,
बस इसमे ही रंग जाना है
इस प्यारी सी होली को,
चलो हर पल खेल ले,
डूब ले प्रेम में आज,
बस प्रेम में ही जी ले,
बदल दे वसुधा का स्वरूप,
बस प्रेममय ही होकर,
प्रेम की दुनिया बना,
बस प्रेम में ही जीकर।।