दो अनजाने..
दो अनजाने..

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मुद्दतों पहले मिले थे
रीति की लगाई नींव थे...
नावाकिफ़ सा थे..
वाकिफ़ होते गए थे...
माहौल एकसार पूरा पूरा न था...
उसे अपनाए, जकड़े रखा था...
गुंजाइश की कोई गूँज न थी...
नियति की ऐसी पूँज थी...
कुछ बेमन भी था...
पर मन अपना न रहा था...
दो गज ही अपने ताल्लुक के थे...
खुले आस्मां की खुल्लास न थे....
भाव बड़े ऊँचे थे...
पर बढाए मैंने न थे....
रोज एक नया दिन था...
शाम ढले तो दिन पुराना था....