जबकि तुम
जबकि तुम


जबकि तुम
चले गए हो कब के बिखेर कर
जिंदगी के कैनवस पर ताजा रंग
शहर में तुम्हारी गंध
फैली है अभी भी
हर आयोजन में
अखबार के पन्नों में
ढूँढती हूँ तुम्हें
सपने में मिलती हूँ
लगभग रोज
आज भी उसी आवेग से
जबकि चले गए हो तुम
कब के
अब जब कि तुम चले गए हो
नहीं टपकती तुम्हारी बातें
पके फल की तरह
नहीं गूँजता मन में
मादक संगीत
झुक गए हैं फूलों के चेहरे
झर गया है पत्तियों से संगीत
नहीं उतरती
अब कोई साँवली साँझ
मन की मुंडेर पर.