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richa agarwal

Romance

4  

richa agarwal

Romance

शायद- एक नादानी

शायद- एक नादानी

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590

शायद उस पल को कभी जिया ही नहीं मैने

जिसकी बातें हमेशा सुनाती रही मैं,

शायद वो समा था ही नहीं कहीं जिसमें

महफिलें सजाती रही मैं,

शायद वो दूरियाँ नहीं मिटनी थी कभी

जिनकी डोर समेटती रही मैं,

शायद वो चाँद नहीं कुछ और ही था

जिसमें तुम्हारी तस्वीर निहारती रही मैं,


शायद वो फूलों की महक कुछ बेसुध सी थी

जिसमें तुम्हें महसूस करती रही मैं,

शायद उस रात का सवेरा ही नहीं था

जिस सुबह में तुम्हारा इंतजार करती रही मैं,

शायद उन अल्फाजों में मिश्री नहीं जहर था

जिन्हे तन्हाइयों में याद करती रही मैं,

शायद उस पल को कभी जिया ही नहीं मैने

जिसकी बातें हमेशा सुनाती रही मैं...

 

शायद उस धुन में कुछ अलग बात थी

जिसको याद करके मचलती रही मैं,

शायद वो प्रश्न ही गलत रहा होगा

जिसके जवाब में मीलों भटकती रही मैं,

शायद इन सड़कों पर निशान मंज़िल के ना थे

जिनका पीछा तमाम उम्र करती रही मैं,

शायद वो आहट में दस्तक कोई और थी

जिसे सुन आधी रातों में जाग जाती थी मैं,

शायद उस मौसिकी की राग ही बेज़ार सी थी

जिसे सुन कर मदहोश हो जाती थी मैं,

शायद तेरी दस्तक से ही दिल को सुकून मिलता

जिसमें दर्द छुपाये तेरा इंतजार कर रही थी मैं,


शायद वो सच नहीं महज एक सपना था

जिसे हकीक़त मान के जिये जा रही थी मैं,

शायद यही वो सुन्दर ख़्वाब था जिसमें

जान के भी अनजान बनती जा रही थी मैं,

शायद वो तेरा अपनापन था जिसे

हकीक़त में प्यार समझ रही थी मैं,

शायद ये रिश्ता यही तक का था जिसे

तमाम उम्र के सपने लिए सजा रही थी मैं,

शायद तूने कुछ और ही कहा होगा जिसे

तुम्हारा मोहब्बत-ए-इजहार मान रही थी मैं,

शायद अभी भी नादानी में ख़्वाबों के

पर लगाकर उड़े चली जा रही थी मैं,

शायद इन सब में तेरा कुछ नही बस

यूंही मैं तुझपे अपनी जान निसार कर रही थी मैं,

शायद नहीं यकीनन उस पल को कभी

जिया ही नहीं मैने

जिसकी बातें हमेशा सुनाती रही मैं...


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