ब्याही बिटिया
ब्याही बिटिया
शादी को कुछ मास हुए हैं,
पर माँ याद बहुत आती हो तुम
वो मेरी अनसुलझी पहेलियों में,
कैसे फस जाती थी तुम
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम
अब मैं भी कुछ तुम जैसी लगती हूँ
सब कहते हैं, साड़ी में बहुत जचती हूँ
चाय तो मैं भी अदरक कूट के बनाती हूँ
पर गरम रहते बस पीना भूल जाती हूँ
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम
भूली नही होगी तुम भी जब हम छत पर सोया करते थे
अंताक्षरी में रोज हम पापा को कैसे हरा देते थे
मोमबत्ती लालटेन बुझाकर आखिर में तुम सोती थी
सुबह बिस्तर से गायब जब तुम रसोई में मिला करती थी
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम
गुस्सा होती थी मैं जब गूथ के चोटी तुम बनाती थी
फिर मनाने के लिए मुझे दम आलू खूब खिलाती थी
देखो आज मैं खाना तो खूब बना लेती हूँ
एक रोटी कम भी हो तो पेट भर के खा लेती हूँ
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम
गोद में तुम्हारे मैं सांझ को सुबह कर देती थी
एक चीज के ना मिलने पे नाक में दम भर देती थी
पैसे सब खर्च कर देती हिसाब नहीं दे पाती थी
चूल्हे चौके से दूर बस हवाई बातें बना लेती थी
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम
तुम साथ रहती थी तो सब अच्छा लगता था
तुम्हारी डाँट में भी कितना प्यार झलकता था
आज मैं भी तुम हूँ, कल शायद तुम भी मैं थी
पर मेरा बचपना तो आज भी उस मैं और माँ को तलाशता है
सच कहूँ माँ बहुत याद आती हो तुम।