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richa agarwal

Abstract

4.0  

richa agarwal

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सोन चिरैय्या

सोन चिरैय्या

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मुशायरे की मल्लिका, तो कोठे की शान,

रात की चाँदनी तो उजाले में गुमनाम।

बदनाम इस गली में है बस मेरी एक पहचान,

कोई बोले रोजी तो कहे शबाना है सबकी जान।।


अब रात काटती है मुझको तो दिन चुभता सा है,

कभी उड़ जाऊँ इस पिंजड़े से ये सपना मेरा है।

ना दिन महीने की गिनती है ना सालों का हिसाब,

ना बिकने दूँ एक भी चमड़ी बन्द कर दूँ ये कारोबार।।


बदकिस्मती की किस्मत ने लिख डाला ये कलंक,

हैवानों की बस्ती के बीच बसा ये अद्भुत नरक।

चमड़ी के रंग से बिकते हैं यहां बिस्तर हर रात,

ना है मर्जी कोई ना बीच में आ सके कोई जज़्बात।।


अब ये जांघ भी लटकती सी है सीना भी झूल रहा,

पर मेरी बेटी के उड़ने का सपना आंखों में मेरी बुन रहा।

बचा लूंगी लुका लूंगी, इस काली दुनिया से दूर उसे मैं कर दूंगी,

मेरा नाम नही पहचान नही अस्तित्व अपना वो बना लेगी।।


तीन सितारे की वर्दी पहने जब वो मुझे यहाँ से ले जायेगी,

जीवन भर के घावों पर फिर मरहम वो बन जायेगी।

नहीं दे सकी मैं उसको जो वो पहचान मुझे दिलायेगी,

उस दिन ये शबाना फिर से एक नयी शुरुआत करेगी।।


कौन है मेरे पिता जो पूछा तो मैं क्या ही कह पाऊँगी,

अपनी सोन चिरैय्या से फिर कैसे नजरें मिलाऊंगी।

गुमनाम गली में आते जाते किसपे उंगली रख पाऊँगी,

होगा जो भी मैं अपना धर्म निभाऊंगी उसे यहाँ से बहुत दूर ले जाऊँगी।।

उसे यहाँ से बहुत दूर ले जाऊँगी।।



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