एककवि
एककवि
जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है
ना फिक्र उसे किसी काज की,
ना परवाह किसी के आज की
जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है
कसती जा रही है ताने दुनिया,
लांछन भी बहुत लग रहे हैं।
इस ताने बाने के भँवर से दूर
रिश्ते कुछ उलझ रहे हैं
लेकिन जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है
ना चल टेढ़ी चाल की गिर जाएगा
ऊँचा है रास्ता भला कैसे सम्भल पायेगा
पुस्तैनी बातें हैं इन्हें जान ले
पीढ़ियों की सीख है इन्हें मान ले
फिर भी जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है
ना दौड़ इतना की ठोकर तुझको मारेगी
लहरें है तेज कश्ती डूब जाएगी
किनारा भी ना मिलेगा,
जो दूर तू जो निकल गया
पर जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है
ना रुपया है ना पैसा है,
इस कलम से क्या दुनिया बदलेगा
स्याही बहाने से क्या इतिहास रचेगा
ना रहेगा कुछ तब तू वापस आएगा
हाँ अभी भी जमाने की कड़वाहट समेटे
मुसाफिर मदमस्त जा रहा है