सर्द हवा बातें करती है
सर्द हवा बातें करती है
ओ हवा सर्द,
ओ हवा बर्फीली,
पहाड़ों से मैदानों तक,
धरती चूमते रास्तों तक,
तुमने श्वास को भी सर्द किया है,
अपने ही रंग में रंगा है।
क्या तुम खुद जानती हो अपनी इस ठंडी कला के बारे में?
तुम प्रकृति के दिल पर कभी उकेरती हो सुंदरता, तो कभी थरथराहट भी।
कभी श्वास भी,कभी निश्वास भी।
क्या तुम जानती हो कि नदियां बदल जाती हैं शीशे में?
या कभी होती हो अचंभित उस नीरव शांति से जो तुम ही करती हो इकट्ठी?
तुम कहती हो, मैं आ रही हूं, लेकिन तुम गढ़ती हो सन्नाटे!
ऐसा कौन है जो आने को बोले, और शांति ही को बांटे?
लेकिन सर्दी, क्यों कड़कड़ाती हो तुम?
क्यों पकड़ तुम्हारी है इतनी मजबूत?
क्यों लगती हो अंतहीन सी?
किसकी हो तुम दूत?
"आह," सर्दी हंसती है, "मेरा कठोर आलिंगन है
बस इक सूक्ष्म सा विराम।
जीवन को फिर खिलने को, चाहिए थोड़ा आराम।
इक रास्ता बनाना है, वसंत की शुरुआत को,
जो करे स्पष्ट तुम सभी की श्वास को।
मैं सर्दी की बुद्धिमत्ता की बात नहीं करती हूं।
गीत वसंत गा सके सो मैं फुसफुसाहट भरती हूं।"
