मैं हूँ कवि..!
मैं हूँ कवि..!
मैं हूँ कवि , हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।
तुम मुझे कोई नई सरगम सुना दो,
ढूँढ कर कोई नई धुन आज ला दो,
तो नया मैं गीत रचकर गुनगुना दूँ,
लेखनी गूँगी नहीं मेरी दिखा दूँ,
गुंबदों को गूँज देकर मैं जगाऊँ,
शब्द सरिता भोजपत्रों पर बहाऊँ,
रिस रहे हैं स्रोत से अरमान मेरे ।
मैं हूँ कवि , हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।।(१)
०
देखता हूँ खेलता बचपन को जब मैं ,
दृष्टि से पीता हूँ भोलेपन को तब मैं ,
जागने लगता है मेरा सोया बचपन,।
गीत उगते अंकुरों से लोरियाँ बन,
और मैं बालक बना अपनी कृती को ,
निरंतर मैं निरखता हूँ निजि गती को ,
मौन हो जाते हैं तब अभिमान मेरे ।
मैं हूँ कवि, हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।।(२)
०
जब कभी कोई अली सुंदर कली पर ,
कोई गुनगुन जब किसी मिसरी डली पर,
देखता हूँ रिमझिमाते मेघ को मैं,
बदरिया से झाँकते राकेश को मैं,
लेखनी करती प्रवाहित प्रेम धारा ,
देखता मन मेनका का नृत्य प्यारा,
गीत बनते कामदेवी बान मेरे ।
मैं हूँ कवि, हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।(३)
०
और जब आँसू कोई तपता हुआ सा,
भाव कोई भीगता जलता हुआ सा ,
खाली आँखों सूनी माँगों को दिखाने,
अपने भीगे मन का दुख मुझको सुनाने,<
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पास आया लड़खड़ाती चाल चलकर,
पृष्ठ पर बिखरी है कविता शोक बनकर,
तड़फ उठते उन क्षणों में गान मेरे !
मैं हूँ कवि , हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।।(४)
०
दुंदुभी रणक्षेत्र में जब-जब बजी है ,
हाथ में खप्पर लिये चण्डी सजी है ,
सौनिकों में भाव कुर्बानी का भरने,
मातृभू माता का मंगलाचरण करने,
भाट चारण रूप धर मैं आ गया हूँ ,
सुप्त सिंहों को जगाने गा गया हूँ ,
गीत बनते वीर को आह्वान मेरे ।
मैं हूँ कवि , हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।(५)
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यदि कहीं लहरा गया भक्ति का सागर,
छलकने लगती है मेरी भाव गागर ,
काव्य के ताने में मैंने हरि कथा को,
गूँध कर बाने में भक्तों की व्यथा को ,
घाट पर नदिया के तब घिसता मैं चंदन ,
तो स्वयं श्री धारने आते हैं नंदन ,
मैं हूँ तुलसी सामने भगवान मेरे ।
मैं हूँ कवि, हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।(६)
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देखता जिस रूप में मैं जिन क्षणों को ,
भोगता हूँ संचितों को या ऋणों को,
चोट कोई स्वप्न मेरा छेदती है,
बात कोई जब कहीं पर बेधती है,
तो मेरा सोया कवि व्याकुल हुआ है ,
स्वप्न अंकन के लिये आकुल हुआ है ,
मूल्य बनते मान और अपमान मेरे ।
मैं हूँ कवि, हैं काव्यमय मन-प्राण मेरे ।(७)