कहीं किसी मोड़ पर
कहीं किसी मोड़ पर
चलते चलते ज़िन्दगी के सफर में, शायद सच्चा हमराही मिल जाए,
कहीं किसी मोड़ पर, शायद ज़िन्दगी को सही दिशा मिल जाए।
बहुत भटका हूँ जीवन में मैं, काश कुछ भटकाव कम हो जाए,
कैसे सहूँ मैं और बिखराव, काश यह बिखराव कुछ कम हो जाए।
चलते चलते ज़िन्दगी के सफर में, फिर जुड़ जाए शायद टूटे सम्बन्ध,
कहीं किसी मोड़ पर, शायद निभ जाए रिश्तों के सारे अधूरे अनुबंध।
बहुत दोहन हो चुका, काश बंद हो प्रकृति का और अनुचित दोहन,
कैसे सहूँ अब और दोहन, कैसे सुनूं अब माँ वसुंधरा का करुण क्रंदन।
चलते चलते ज़िन्दगी के सफर में, शायद संस्कारों का हो जाए पुनः जनम,
कहीं किसी मोड़ पर, शायद कर लें इंसान सत गुणों का आचमन।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, पाँच विकारों में बंध गया यह संसार,
बिखर गई रिश्तों की वह पवित्रता, बिखर गए सब संयुक्त परिवार।
इंसान इंसान से लड़ रहा, भगवान देख रहा होकर मूक, बन गया बेचारा,
कहीं किसी मोड़ पर, शायद हो जाए फिर, इंसान का इंसान से भाईचारा।
मार काट, बलात्कार, लूटमार, अपहरण, क्या यही हैं आज इंसान का व्यवहार?
मिट गया भावों का शिष्टाचार, रह गए तो बस कदाचार और दुर्व्यवहार।
कहीं किसी मोड़ पर, काश ज़िन्दगी में वापस आ जाती, खुशियों की बहार,
काश मिट जाते सारे बिखराव, ज़िन्दगी में बहती फिर नव चेतना की बयार।
काश फिर हो जाता जग में, सत युग का पुनः पावन आगमन,
काश उदित हो जाता एक नया सवेरा, अंधकार का हो जाता पूर्ण शमन।
एक नई उमंग होती, एक नई तरंग होती, होता भाईचारा,
कैसा अद्भुत होता सब कुछ, कैसा पावन होता यह संसार हमारा।
आओ मिलकर करें हम सत्कर्म, मिट जाए जग से सारे दुष्कर्म,
कहीं किसी मोड़ पर, काश अपना लें हम सब एक धर्म- मानव धर्म।