जनकवि से धनकवि
जनकवि से धनकवि
नया कवि पहले स्वयं को जनकवि के रूप में
स्थापित करता है,
उसे समाज की, देश की चिंता है,
अपनी कविताओं से ये साबित करता है,
धीरे-धीरे लोग उसको जनकवि मान लेते हैं,
उसे इसी नाम से पुकारने लगते हैं,
उसको अपना प्रतिनिधि जान लेते हैं।
उस जनकवि को लोगों से ढेर सारा प्यार-दुलार,
मान-सम्मान, और अख़बार में स्थान मिलता है,
उसकी कविताएं लोगों की ज़ुबान पे
आसानी से चढ़ने लगती हैं,
मां सरस्वती की कृपा उसपर बरसने लगती है,
इसी समय कुछ कवियों की नीयत बदलने लगती हैं,
उनका मन लक्ष्मी-पूजा को मचलने लगता है,
केवल सरस्वती-पूजा से मन भरने लगता है।
अब भी वो अपनी कविताओं में समाज की
कुरीतियों को उकेरते हैं,
राजनीति में फैली गंदगी पर टिप्पणी करते हैं,
राजकवि होते हैं पर राष्ट्रकवि से दिखते हैं,
धन की कमाई हेतु रोज़ पाले बदलते हैं।
अब उनके लिए साहित्य समाजसेवा का नहीं
अपितु मिष्ठान-मेवा का स्रोत बन जाता है,
जिससे उनके घर में खूब सारा धन आता है,
नज़र में अब उस कवि के नोट की गड्डी रहती है,
पैसा-ही-पैसा दिखता है अब उसे
जिधर भी नज़र घुमाता है।
कितनी मासूमियत से सफ़र शुरू करके,
कैसे वो हम सबको बेवकूफ़ बनाता है,
हम उसकी कला के कद्रदान बने फिरते हैं,
वो अपनी कला की कीमत पहले से लगाता है।
