अधूरी हसरतें
अधूरी हसरतें
हर बार जब हम धरती को छूने ही वाले होते हैं,
कोई आरी, कोई चाकू, चला दी जाती है हम पर।
काट दिया जाता है हमें एक जैसे आकार में,
सजा दिया जाता है हमें, जैसे किसी दरबार में।
पेड़ नहीं बन पाते हम, जड़ें नहीं रह जाते हम,
अपनी अधूरी हसरतों को अक्सर ही दफनाते हम।
हमें आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया जाता,
हम में से कोई अपने पैरों पर खड़ा हो नहीं पाता।
इंसानों के बीच हम जब से रहते आए हैं,
कटते ही रहे, फल-फूल नहीं पाए हैं,
इससे अच्छा होता हम किसी जंगल में उगे होते,
इंसानी बस्तियों से दूर, उनकी हसरतों से दूर।
वहां जंगल में कम से कम हमारा परिवार तो बढ़ता,
हम से हर कोई खुद एक पेड़ तो बनता।
चुका पाते तब शायद हम अपना कर्ज़,
इस धरती मां के प्रति निभा पाते अपना फर्ज़,
बचा पाते शायद तब इसको ग्लोबल वार्मिंग से,
रेडियोएक्टिव किरणों से और केमिकल फार्मिंग से।
पर किस्मत ने हम पे गज़ब सितम ढाया है,
हमें पढ़े-लिखे इंसानों के बीच उगाया है,
रोज़ ही हम देखते हैं कई सूरज उगते हुए,
रेंगकर चलने वालों को अपने पैरों पर खड़े होते हुए,
हमारा भी मन करता है ज़मीन के अंदर गड़ने का,
प्रस्फुटित होकर स्वयं ही जड़ से एक पेड़ बनने का।
