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डॉ. प्रदीप कुमार

Romance

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डॉ. प्रदीप कुमार

Romance

मुकम्मल इश्क़

मुकम्मल इश्क़

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हर एक पैंतरा मैं आज़मा कर बैठा हूँ,

तुम समझते हो बस दिल लगाकर बैठा हूँ,

वो मशगूल है अपने हुस्न को संवारने में,

मैं कब से उसके सज़दे में आके बैठा हूँ।

पर्दा-नशीं ही पाया है, जब भी दीदार हुआ है,

मेरी नज़रों का हर वार बेकार हुआ है,

अभी-अभी मालूम हुआ वो जाएंगे कल बाज़ार,

मियां मैं तो घात लगाकर आज शाम से बैठा हूँ।

उनसे इश्क़ किया नहीं, इश्क़ उनसे हुआ है,

इश्क़ की किताब मैं पूरी रट-रटाकर बैठा हूँ,

बस एक बार वो मुझे, एक नज़र देख लें,

सुबह से ही मैं उनके दरवाज़े के बाहर बैठा हूँ।

आधा-अधूरा इश्क़ है, चलो कोई बात नहीं,

पर अपना मैं पूरा दिल उनको देकर बैठा हूँ,

वो सुन लें मेरा नाम, बन जाए फिर मेरा काम,

इसी उम्मीद में मैं इतना नाम कमाए बैठा हूँ।

यार मेरे सुनो ज़रा, उनसे जाके कहो ज़रा,

इंतज़ार आसां नहीं ये, मैं हर बाज़ी लगाए बैठा हूँ,

उन्हें मेरी फ़िक्र है तो इसका मुझे सबूत दें,

वरना मैं इश्क़ में अपना सबकुछ लुटाए बैठा हूँ।



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