विमर्श
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लता बनने के दिन गए स्त्री
जब कंधे पर चढ़कर जीने के लिए
तुझे तोड़नी -मोड़नी पड़ती थी अपनी देह
ढलना पड़ता था आश्रय के अनुरूप
विकसित ही नहीं हो पाती थी तुम्हारी रीढ़
खड़ी ही कहाँ हो पाती थी तनकर सीधी
वजूद ही कहाँ था तुम्हारा
परजीवी लता व्यक्तित्व नहीं बन सकती स्त्री
वह या तो कंधे पर होती है
या फिर पैरों के नीचे
उसकी नहीं होती अपनी कोई मर्ज़ी
अपना अस्तित्व
वह पेड़ के नाम से जानी जाती है
तुम्हें विकसित करनी ही होगी अपनी रीढ़
छोड़नी होगी सुविधा भोगी जिंदगी
करना होगा संघर्ष
तुममें पेड़ बनने की क्षमता है स्त्री
तुम लता नहीं पेड़ बनो स्त्री ।