मत्स्य कन्या
मत्स्य कन्या
हे मत्स्य कन्या
तुम कल्पना हो
या के साकार सत्य
समुद्र रेत पर
अपने सौंदर्य का
प्रतिबिम्ब या फिर।
अपने प्रिय के
आगमन की प्रतीक्षा
में ध्यान स्थिर।
बहुत सूना था ये तट
एकांत था कोई नहीं था
जब मनुष्य उतना
निष्ठुर नहीं था
तब आती रही होगी
तुम निरंतर , हैं ना
अब कहाँ मिलता होगा
तुम्हे वो पल
समुद्र रेत पर
अपने सौंदर्य का
प्रारूप बिखेरने को।
अपने प्रिय को
सुरमई सुरभित वायु
के स्पर्श के साथ
आलिंगन करने को।
मैं तुम्हारे इस दुविधाजन्य
प्रतिभाव से सजग हूँ
पीड़ित हूँ सह अनुभूत हूँ
साथ ही साथ खिन्न भी हूँ
क्युँकी मैं ही वो मनुष्य हूँ
जिसके कारण इन सभी
समुद्र तट पर तुम्हारा आना ऐसे
सौंधी सौंधी नरम गरम
रेत का अपने कोमल नरम
शरीर को एहसास दे कर
स्वेदन करना फिर अपने प्रिय
के आलिंगन में खो जाना
अब नसीब न हो पाता होगा।
तुम चिंतित न हो ओ।
हे मत्स्य कन्या
मैं अभी भी
इन हालातों में
अनेक ऐसी एकांत
समुद्री किनारों को जानता हूँ
हाँ लेकिन तुम को उनकी
तलाश स्वयं करनी होगी
क्यूंकि तुम मुझे देख कर
कदापि मेरे पास तो
न आओगी
मैं जानता हूँ तुम्हारी
मजबूरी तुम्हारी नारी सहज
लज्जा , शुचिता , शालीनता
कोमल भाव व् गरिमा को
हे मत्स्य कन्या
समुद्र की रेत पर फिर
अपने सौंदर्य का
तुम अपने प्राकृत स्वरूप में
सौंधी सौंधी नरम गरम
रेत का अपने कोमल नरम
देह को एहसास दे कर
स्वेदन करना फिर अपने प्रिय
के आलिंगन में खो जाना
मैं ऐसे ही तुम्हे अपनी काल्पनिक
दृष्टि से देख देख
काव्य रच लूँगा
तुम को नमन कर लूंगा।