सजा- ए – मोहब्बत
सजा- ए – मोहब्बत
आहटें यादों की सताने लगीं हैं अब मुझको
बढ़ती हुई उम्र है और उनका गम बेहिसाब ।
सही किया या गलत ये तो पता नहीं है मुझको
हुक्म जैसा मिला अल्लाह से वही तामील किया ।
यूँ तो ये उम्र कम से भी कमतर लगती है
उनके मिलने की वजह अब मुझको कम लगती है ।
कहीं भीड़ में दिख भी जाए अगरचे इत्तफाक से
अपनी किस्मत नहीं मुझको इतनी हसीन लगती है ।
एक गोला बादलों का मेरे पेट में गुड़मुड़ाया था
ऐसा लगा कहीं आस पास ही उनका साया था ।
भीड़ थी बहुत उस वक्त बारिशों का मौसम था
दामिनी चाँद की बादलों की चिलमन से एक पल को झांकी थी ।
आशिकी के अरमान ऐ खुदा किसी को न बख्शना
बद्दुआओं के सिवा कुछ भी हासिल कहाँ हुआ होगा तुझको ।
एक तरफ़ा इस तकलीफ़ को सहने का दम कहाँ सब में होता है
ता उम्र तड़पना बिना गुनाह के किसी सजा से कम क्या होगा ।