क्यों भटक गए हो राही
क्यों भटक गए हो राही
क्यों भटक गए हो राही ?
अपने जीवन-पथ से अब
क्या नहीं रहा था तुम्हें भरोसा ?
अपने बाहुबल पर तब
माना कि पथ में काँटे थे
मजबूरी थी अड़ी हुई
व्यंग्य बाण भी चलते होंगे
लाचारी थी बढ़ी हुई
किंतु इन सब से घबराकर
तुम अपना सपना भूल गए
नहीं रूकेगे, नहीं झुकोगे
जीवन-पथ पर चलते हुए
तुम इतने कमजोर नहीं थे
सिर उठाकर जी सकते थे
डगर कठिन थी पर मगर
संघर्षों से भी लड़ सकते थे
नहीं झुकाया घमंड को तुमने
स्वाभिमान को झुका दिया
लालच की मृगतृष्णा में फंस
अमूल्य जीवन मिटा दिया
अब कहलाते हो वहशी खूनी
दरिन्दे देशद्रोही तुम
अब बचकर छिपते फिरते हो
कलंकित मुख लेकर तुम
है अभी भी समय सम्भलो
आत्मसमर्पण तुम कर दो
तज यहीं अपनी भूलों को
पुनः घर को लौट चलो
सुबह का भूला लौटे यदि तो
भूला नहीं कहलाता है
सही मार्ग पर चले यदि तो
कभी मात नहीं खाता है।