||"कुण्ठा"||
||"कुण्ठा"||
कुछ कहूं तो दिक्क़त ,
ना कहूं तो दिक्क़त !
समझ नहीं आता कुछ कहूं ,
या ख़ामोश रहूं मैं !
वंश चलाने की चाह में ,
मुझे इस कग़ार पर ला खड़ा कर दिया !
बेटी जनू तो मनहूस कहलाऊँ ,
बच्चें ना जनू तो बाँझ !
समझ नहीं आता बच्चें जनू ,
या बाँझ रहूं मैं !
हनन होता है मेरे अधिकारों का जब ,
टीस अथाह उठती है मेरे मन में !
अधिकारों के लिए लड़ू तो चालाक ,
ना लड़ू तो बुद्धू !
समझ नहीं आता अधिकारों के लिए लड़ू ,
या शांत रहूं मैं !
अथाह बेड़ियाँ डाली हैं ,
समाज़ ने मेरे पैरों में !
बोझ तलें दबी चली जा रहीं ,
बेड़ियाँ तोड़ू त
ो शांति ,
ना तोड़ू तो कुण्ठा !
समझ नहीं आता बेड़ियाँ पहनूं ,
या आज़ाद रहूं मैं !
मकड़ी के जाले की तरह ,
उलझी हूँ रिश्तें - नातों में !
मकड़ जाल में मैं ,
साँस नहीं ले पा रहीं !
रिश्तें तोड़ दूँ तो बदनामी ,
ना तोड़ू तो घुटन !
समझ नहीं आता घुटूँ ,
या बदनामी सहूँ मैं !
उड़ना चाहती हूँ ,
स्वतंत्र भयमुक्त आकाश में !
आज़ाद परिंदे की तरहा ,
पिंजरे की क़ैद में ,
दम मेरा निकल रहा !
पिंजरे में रहूं तो बेचैनी ,
ना रहूं तो परवाज़ !
"शकुन" समझ नहीं आता उडूं ,
या पिंजरे में क़ैद रहूं मैं !