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Shakuntla Agarwal

Abstract Classics

4.5  

Shakuntla Agarwal

Abstract Classics

"राजनीति"

"राजनीति"

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खुले दरीचों से झांक रहे, गुनहगार

सलाखों की कहां औकात, उन्हें रोके

ये सारा खेल राजनीति का है

हिम्मत कहां, कोई उन्हें टोके

मोहरे उनके, खेल भी उनका

 शकुनि की तरहा चौसर बिछाए बैठे हैं

मण्डी लगी सांसदों की खरीद फरोख्त कर

अपनी जीत का हिसाब लगाये बैठे हैं

 राजनीति में सब जायज है

 का फिकरा उछालते हैं

 चन्द बोटियों की खातिर

 भूखें बकरों को फासते हैं

ये भूखें हैं तभी तक साथ हैं

 का राग अलापते हैं

 अपना काम साधते हैं 

फिर हलाल कर डालते हैं

 वेश बना बगुले का

 कवैैये फिर मंडराये हैं

 देखो हमारे शहर में

भिखारी आयें हैं

चन्द सिक्के अछालतें हैं

 आम आदमी को फासते हैं

 काम निकलते ही

 बगले झाकते हैं

जेब हमारी छुरी इनकी

कभी चन्दे के नाम पे

कभी टैक्स के नाम पे

कभी विकास के नाम पे

शनै - शनै जेब तरास्ते हैं

 एक जन्म तो क्या

अपने सात जन्म पुख्ता कर

डालते हैं

कभी आरक्षण के नाम पर

कभी जाति-धर्म के नाम पर

फूट डालो, राज करो 

की नीति अपनातें हैं

भाई को भाई से लड़वाते हैं

खून की होली खिलवाते हैं

भाषण के जाल में फाँसते हैं

फिर कन्नी काटते हैं।


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