खिड़की से झाँकता चाँद
खिड़की से झाँकता चाँद
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वह आज फिर आया है,
उसे देखने
बंद खिड़की की ओट से
अपनी रश्मियों के संग,
छन छन कर आती हुई किरणें
पड़ती हैं जब उसके मुखमंडल पर
छिप जाता है वह, यह देखकर कि
कहीं टूट न जाये तंद्रा उसकी।
मेरी इन किरणों के स्पर्श से
चला जाता है वह दूर
उस बंद खिड़की से।
वह सो रहा था चिरनिद्रा में लीन
था वह किसी माँ का लाल
या किसी सुहागन का पति
या किसी का भाई
या किसी का पिता।
उस बंद खिड़की के पार
रहता नहीं था कोई फिर भी
वह आता था उसे देखने बार बार
उस बंद खिड़की की ओट से
अपनी रश्मियों के संग ..।।