"यूँ ही कोई मिल गया था "
"यूँ ही कोई मिल गया था "
वो अनजाना सा सफर
चल पड़े थे अकेले,
मिले, कई चेहरे जाने अनजाने से
वहीं, कुछ छोड़ गए
कुछ छूट गए -सफर में,
पर,
वो चलती रही संग संग मेरे
बिना रुके -बिना थके अनवरत,
सफर के खत्म होने तक।
मैं, सोचता रहा रास्ते भर
यूँ ही कोई क्यों संग चलेगा,
इस अजनबी के साथ,
वो मेरी क्या थी सहचरी?
नहीं....
वो थी एक संगनी,
सुख दुःख की संगनी,
हाँ, वो संगनी कोई और नहीं
वो थी मेरी परछाई!
बन कर रही संग संग मेरे,
आज चली है वो, संग मेरे
क्षितिज के उस पार सफर के पड़ाव पर
तभी तो दिल ने कहा था कभी,
"यूँ ही कोई मिल गया था" -सफर में
बन के हमसफर परछाई की तरह,
उस अनजाने से सफर में..।