मेरी माँ जब तुम्हें ,मैं
मेरी माँ जब तुम्हें ,मैं
जब भी माँ तुझे चिंतित देखता हूँ , जब तुम्हें उदास देखता हूँ ,जब तुमको दु: खी देखता हूँ !
मन स्तब्ध हो जाता है ! टूट जाता हूँ ,माँ तुझे टूटे हुए देखकर !
मेरी माँ! मैंने तुझसे ही तो सीखा है , आँसु पीते हुए भी मुस्कराना !
गम अंदर ही अंदर पीते हुए भी खुशी के गीत गुनगुनाना!
तो फिर माँ इन अमृत तुल्य मोतियों को यूं ही समंदर की वडवागिन में जला रही हो ?
कैसे टूट सकती है ,मेरी माँ ! उसने तो हमें बचपन से ही जुड़ना सिखाया है ।
मेरी माँ तो शेरनी है तभी तो अपने बेटे को शेर कहके बुलाती है।
तो फिर शेर की तरह दहाड़ने वाले बेटे की माँ कभी कायर हो ही नहीं सकती !
तुम शेरनी की तरह दहाड़ मारों माँ उन दु:ख के आततायी गीदड़ों पर टूट पड़ो!
जीवन के हर परीक्षा से तुने ही तो हमें पार करना सिखाया ! तूने ही तो दहकती आग में भी अपनी ऊँगली पकड़ाकर हमें चलना सिखाया ,हमें दौड़ना सिखाया ,
और तुने ही तो झुंड के झुंड आये लोमडियों से हमें भिड़ना सिखाया और दहाड़ कर खदेरना भी तो तूने ही सिखाया ! चिलचिलाती धूप हो या हो कंपकंपाती ठंड।
तूने ही तो हमें अपने करम में रमना सिखाया ,उद्योग निरत रहना सिखाया !
तो फिर माँ तु आज क्यों उदास हो ?
क्यों तुम मन मारी हुई हो ? आखिर क्यों मेरी शेरनी माँ? क्यों ? तुम खुद को पहचानो माँ और संभालो अपने आप को !