खेलूंगी पापा आंगन में
खेलूंगी पापा आंगन में
खेलूंगी पापा आंगन में, बाटूंगी हर सुख दुख।
जो भी मिलेगा मुझको, रहूंगी हमेशा उसी में खुश।
बस बचा के रखना बुरी बला से, कभी न पापा दूंगी दुख।
हो जाए अगर अन्याय कोई, कभी न बैठना पापा चुप।
बेटी का बचपन खिला अभी, बन गई आज परछाई है।
किया कौन गुनाह बेटी, जिसकी सजा पाई है।
कैसे बदले नीच भेड़ियों को, जिनमें हया ना आई है।
कहती थी बेटी रहूंगी खुश, फिर मृत्यु शैया क्यों आई है।
देखूं कैसे मैं कटे लोथडे़, चीत्कार सुनूँ कैसे बेटी।
सही होगी कितनी वेदना, तेरी वेदना कहूँ कैसे।
हर पल चाहा जान से अपने, बेजान मैं तुझको कहूं कैसे।
हर पल देखा मुस्काती तुझको, धूमिल चेहरा देखूं कैसे।
माना बेटी मजबूरी कुछ, क्या मां को तेरे दोष दूं।
कहां पाऊं संस्कार बीज, जो हर घर में मैं रोप सकूँ।
बेटी कर अब तू ही कुछ, जिससे मुस्काती देख सकूं।
बढ़ जाए मेरे आंगन में, जिम्मेदारी में सौंप सकूं।
जान के सब अंजान बने हैं, इज्जत का मेरी रसपान किए हैं।
गई है बेटी की इज्जत, जान से हाथ भी धोया है।
गुनाहगार मुक्त घूम रहा, मानो गुनाह का बीज हमीं ने बोया है।
सर झुका चल रहा पिता, भाई जी भर ना रोया है।
नजर बजाता चलता है, गांवों और बीच बाजारों में।।
अपना ना कोई मिल जाए कहीं, लम्बी लगी कतारों में।
पूछना ले बेटी कैसी है, पता लगा है क्या कुछ।
क्या पूंछ रहे बूढ़े बाप से, जो हर पल रहता है चुप।
" मृत्यदंड काफी नहीं, अपराध कुचलने के लिए।
बस सोच बदलनी होगी, समाज बदलने के लिए।"
