परदेशी
परदेशी
वह भी एक दिन था, परदेशी जब आते थे।
बच्चे बूढ़े सब खुशी होते, सब दौड़े-दौड़े जाते थे।
फल मिष्ठान ज्वेलरी कपड़े, भर भर के वह लाते थे।
पहुंचते ही सब चूमे कदम, भगवान वो बन जाते थे।
लहर खुशी की उठती घर में, सब मग्न हो जाते थे।
कोई लाता कुर्सी पानी, कोई पलंग उठाते थे।
तब तक आसपास के लोग, सभी वहां जुट जाते थे।
काव लाया परदेशी सब, बांट के मजे से खाते थे।
कुछ पाते चिट्ठी चौपाती, कुछ पैसा पा जाते थे।
कोई खोजता अपना कपड़ा, कोई फल ले खाते थे।
होता फिर स्नान ध्यान, भजन पूजन करवाते थे।
बैठते खाना खाकर, फिर निशदिन बतियाते थे।
आज भी इक दिन है, परदेशी जब आते हैं।
बच्चे बूढ़े सब खुश होते, पर दूर सभी हो जाते हैं।
पहुंचते ही घर पर, दरवाज़े बंद हो जाते हैं।
नाश्ता पानी बाद में होता, पहले जांच करवाते हैं।
होती खुशी आज भी हैं, पर दूर से काम चलाते हैं।
न छूता कोई झूला, क्वॉरेंटाइन किए जाते हैं।
कैसे बीता वक्त राह का, रो-रो सब बतलाते हैं।
देखते ही आस पड़ोस के, कुत्तों सा दूरियाते हैं।
कोई ना मांगता हाल खबर, सब रास्ता बदलकर जाते हैं।
सच्चाई से न वाक़िफ़ होते, सब उंगली उठाते हैं।
ना जाने कैसे परदेशी, दुःख भरे दिन ये बिताते हैं।
कष्ट होता अपनों को भी, पर कुछ ना कह पाते हैं।
देख मानव की अनुपम महिमा ,रवि भी कुछ न कह पाते हैं।
