सावन का परिवर्तन
सावन का परिवर्तन
सावन की है अजब ठिठोली, गायब है कोयल की बोली।
बिखरी है पक्षी की टोली, नहीं सुनाई देती है इनकी बोली।
कहां गए बचपन के साथी, कहां गयी वो भीगती टोली।
कितना सुखद वो दिन था, जब होती बागों में ठिठोली।
फिर से भीगी मिट्टी होती, छिट्टा कर देता वो बैठ के रोती।
उसके रोने से जब मैं रुठता, फिर आकर वह मुस्काती।
मुझे मनाती हाथ पकड़कर, मैं खुद जाकर देता पानी।
फिर वह खुद से धोती, फिर होती हंसी ठिठोली।
मिट्टी से फिर घर मैं बनाता, वो फिर दुल्हन बनकर आती।
गोलू फिर से बनता भईया, दुल्हन वो मेरी बन जाती।
फिर से खेलते गुड्डा गुड़िया, मोहन लाता दवा की पुड़िया।
राधा फिर साली बन जाती, फिर से चन्दा बनती बुढ़िया।
छोड़ सभी मतभेद, मिलकर लूका छिपी फिर होती।
बार बार बचाते सबको, फिर कोने में खड़ी वो रोती।
अगर रूठती वो हमसे, फिर मेरी हारी होती।
कितना लिखूं हे प्राण प्रिय, तुम हो जीवन की ज्योति।
क्यों बड़े हुए हम सब,अब कैसे करें ठिठोली।
राहों में भी मिलना दुभर, कैसे अब बोलें बोली।
बदला नहीं बचपन का प्यार, पर बदली है तोतली बोली।
सावन की है अजब ठिठोली, अब बोले तो चल जाए गोली।