जुड़ाव
जुड़ाव
कुछ खामोश सा
यह शहर
मुझे कचोटता है
लेकिन वह बरसों
मुझ संग खिल-खिलाता था ।
होली दिवाली मनाता था
दाना पानी क्या उठा
शहर का मुझसे
मन ही उठ गया ।
सुबह जब ट्रेन से उतरा
कोई जल्दी नहीं थी
आफिस जाने की
खाना बनाने की
क्या पहनूं तय करने की ।
बस एक ही चीज तय थी
खाली बर्तन भाड़े बांधना है
वह मकान जिसमे मेरा घर था
उसे छोडना है
वापस लौटना है
अपने मस्तूल पर ।
धीरे-धीरे शा
म ढलेगी
जिन्दगी भी उसी तरह
खुद को सिमेट लेगी
सब कुछ मेरे दिमाग पर
रह जाएगा
कुछ पन्नों की तरह ।
बरसना, भींगना,
पसीने में नहाना,
सर्द रातों में ठिठुरना
फिर एक कहानी का
ख़त्म होना ।
क्या जिन्दगी यहीं
रुक जायेगी ?
नहीं तो,
किरदार जाते हैं
कहानी चलती रहती है ।
हमेशा की तरह
शहर भी कुछ नए परिंदों को
समेट लेगा, अपने में
फिर ठंड, गर्मी और बरसात
अपनी बिसात बिछायेंगी
सतत.....अविरल ।