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Bhavna Thaker

Tragedy

4  

Bhavna Thaker

Tragedy

इंसानी सोच का आईना होली

इंसानी सोच का आईना होली

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कहाँ जरूरत इंसान को रंगों की 

खुद ही रंगों की फैक्ट्री बने घूमता है,

बिन होली के भी मतलब की

बोहनी पर जाने कितने रंग बदलता है।


ना रावण अभी मरा है ना होलिका

कहीं गई है कुछ दिमागों के भीतर

दोनों अभी भी विराजमान पड़े है।


प्रतिक को जलाने से सोच कहाँ मरती है

होता अगर सही तो ना निर्भया रौंदी

जाती ना स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती।


ढ़कोसले के आदी है हम सालों से

पुतले महज़ जलाते हैं असली राक्षस को

खुद के भीतर छुपाकर सब ही फिरते है।


बंद करो ये खेल खेलैया व्यर्थ समय गंवाओं ना

सही सोच का दामन थामें

खुद को पहले पहचानों ना।


रावण ही खुद को जलाता है और

होलिका जश्न मनाती है अपनी सोच के आईने को

मिलकर जलाकर अच्छे से सब चमकाते है।


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