इंसान है कहीं ?
इंसान है कहीं ?
दर्द पड़े थे उकरे कागज़ पर
तकिये किनारे उसके
कमरे की मायूसी ने छीन लिया
मुझसे शोर जो खनक रहा था मुझमें ।
सिसकारियों में उसके करीबियों की
जैसे उसकी यात्नाएँ चीख रहीं थीं
छलकता हर आंसू, हर आह, दीवार पर दिल की
उसके मौन होते हुए भी हर दर्द लिख रहीं थीं ।
जतन कर निकल खुद को
मैंने उन भावनाओं के समंदर से लिया
शायद वो पन्ना था आखिरी
जिसे मैंने यूँ ही बढ़कर उठा लिया ।
उन चंद पलों में एक पल भी नहीं लगा
की वह अब हमारे बीच नहीं है
यह लिखावट नहीं, वह खुद पूछ रही थी
"सच में क्या... हमारे बीच इंसान कहीं है ?"
मेरी अँगुलियों में कम्पन
मेरी आँखों में गर्माती धुंधलाहट
मेरे सीने में साँसों की गड़गड़ाहट
गतिमान थी जब मैंने एक और पन्ना उठा लिया ।
"किसी की पीड़ा, किसी का सुख कैसे हो सकता है ?
किसी की ज़िस्मानी भूख, किसी आत्मा का शोषण कैसे हो सकता है ?
ये जो देख रहे हो घाव तुम मेरे बदन पर,
इनकी गहराई को देख मेरे जहन में बस यही ख़्याल है
की कोई इंसान ऐसा कैसे हो सकता है ?"
अब तक अटका था पलकों पर जो बनकर धुंधलाहट
अंततः वह आंसू एक सैलाब बन कर उतर गया
पंद्रह साल की उस "रौशनी" ने मुझे अँधेरे में धकेल दिया था
उस अँधेरे में जिसने हर राक्षस के तन से इंसानी लबादा उतार दिया था ।
आखिरी पन्ने तक की ताकत नहीं थी मुझमें
मगर दोषी को अंजाम तक पहुंचाने की चाह ने
हौसलों में नयी जान फूँक दी थी
टूट गया मैं देख पन्ने पर पहचान उसकी ।
"एक गुज़ारिश है, मेरे गुज़र जाने के बाद
बेवजह तलाश मेरे क़ातिल की मत कीजियेगा ।
वह कोई एक शख़्स नहीं, एक विकृत सोच है ।
किसी रूप, रंग,भेष की तलाश छोड़
पहचान उस विकृत सोच से निजात की कीजियेगा ।
और पूछियेगा खुद से,
क्या सच में... हमारे बीच इंसान कहीं है ?"
उसकी मासूमियत अपने अंत का राज़
अपने साथ लिए जा रही थी
छोड़कर पीछे दुःख और सवाल
साथ सबकी डूबती नजर लिए जा रही थी ।