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Yuvraj Gupta

Romance Tragedy Classics

4  

Yuvraj Gupta

Romance Tragedy Classics

इक़बाल

इक़बाल

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क्यूं फिर से... वही गलती किए जा रहा हूं

मोहब्बत पास है मेरे फिर से दूर किए जा रहा हूं

बेचैनी है ये मेरी या ज़ख्म ताज़े हैं पुराने

डर है टूट जाने का या आदतन किए जा रहा हूं

वो जा चुकी है और उसकी यादें भी पुरानी हैं

नासमझ था जब मैं, सुनो ये तब की कहानी है

जो आज है पास मेरे उसे फर्क नहीं पड़ता कल से

मगर मैं ही... तन्हा काली रातों में मरे जा रहा हूं

क्यूं इतना मुश्किल हो गया है उन लम्हों से उबरना 

क्यूं हर नई शुरुआत एक खौफ तन्हाई का देती है

ना समझना कि, मैंने उठने की कोशिश नहीं की है

हो चुका हूं चूर खुद में... बार बार गिरे जा रहा हूं

मेरे आज पर भारी मेरा कल पड़ रहा है

दिल भी कहने लगा है, 'तू ये क्या कर रहा है'

वो मासूम, मेरी हर सांस को संवारने में लगी है

और मैं हर मुलाक़ात में उसे दगा दिए जा रहा हूं

गुनहगार मैं खुद को उसकी आंखों में दिखता हूं

जो लाती ना वो लब पर... मैं वो दर्द भी पढ़ता हूं

उसकी चाहत के मैं खुद को काबिल नहीं समझता

हिस्सों में अपने गुनाहों का आसमान लिए जा रहा हूं

कोई शर्त, कोई कीमत या कोई सौदा हो तो बताओ

उसकी यादों का गर हकीम हो मौत तो उसे ही बुलाओ

ज़हर बीते लम्हों का उसके भी तरानो को राख़ करता है

या इन प्यालों को बेहिसाब... बस मैं ही पिए जा रहा हूं.


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