ढलती शाम
ढलती शाम
सूर्य धीरे-धीरे ढल रहा है, आसमां रंग बदल रहा है
पेड़ अपने आप को, खिलखिलाते हुए फल रहा है।
प्रकृति अपने दृश्यों से ज्यों हर दृश्य बदल रहा है
परंतु हर कोई इश्क छोड़कर, नफरत में जल रहा है।
मैं मुंडेर पर खड़ा था, सामने की मुंडेर कोई खड़ी है
ये इश्क है जनाब,तभी तो रांझा के सामने हीर खड़ी है।
जुल्फो की एक लहर, जैसे हिलती मोक्तिक की लड़ी है
आंखों से देखकर शरमा गई,लेकिन मेरी नजर वहीं गड़ी है।
कभी नीचे जाती है, कभी भागकर वापिस आ जाती है
मेरी नजर उसके चेहरे से, हटने को थोड़ा घबराती है।
कभी ये इश्क अधूरा था, लेकिन आज याद आती है
वो वक्त था जब मैं उसे डराता था, आज मुझे डराती है।
उसे देखकर आज ये होठों की सुर्खियां फिर खुलने लगी है
लगता है शायद खामोशी को भूलने लगी है।
बंद होठों से लगा था कि, कुछ अहसास होगा
लेकिन हमारी खामोशी से, उनकी जुबां खुलने लगी है।