हसरत...
हसरत...


कुछ इस कदर है मुझे हसरत तुझे पाने की
जैसे तारों को हो चाहत रात सजाने की
मैं ढल जाता हूं हर शाम कतरा कतरा
काश तुझे कभी हो हासिल फुर्सत मेरे पास आने की
कुछ इस कदर है मुझे हसरत तुझे पाने की
मैं सागर था शांत मेरी बेचैन लहर तुम थीं
भीड़ में भी पाता हूं तन्हा खुद को हर घड़ी
कब तक लेता रहूं सांसें दिल में बिना धड़कन के
ना जाने कब लगेगी अर्जी खुदा को मेरे सजदों की
तू ख़्वाब अधूरा मगर सुंदर बहुत है
तू दर्द है सीने में... ये राहत बहुत है
ना कोई दुआ... और ना ही कोई हकीम चाहिए
क्यूंकि अब तो आदत सी है मुझको ऐसे जीने की
मेरी किस्मत कोयले में छुपा सोना है
मेरी तड़प चोट है पत्थर पर कुदाल की
मेरा इंतजार परिश्रम है श्रमिक का
कभी तो होगी हासिल चमक तेरे नूर की
कुछ इस कदर है मुझे हसरत तुझे पाने की
ऐसा क्यों है कि हर दिल किसी का मोहताज है
ये किस्सा सिर्फ मेरा नहीं कहानी है जमाने की
जिस पर निकले दम क्यूं वही इतना खास है
जबकि अंतिम सफर में जगह है सिर्फ एक सवारी की
क्या होता है किसी भी उम्मीद का जिंदा होना
जब मरना ही एक मात्र सच्ची कहानी है
क्यूं उलझने देता है दिमाग खुद को दिल के छलावे में
ये जानते हुए कि आखिरी गुत्थी भी इसे ही सुलझानी है
ज़िंदगी को दरकार है सांसों की
दरियाओं को दरकार है बारिश की
मैं बहा दूं अपनी जिंदगी दरिया में
गर ये भी कीमत हो तुझे पाने की
कुछ इस कदर है मुझे हसरत तुझे पाने की।