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Vandana Singh

Drama

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Vandana Singh

Drama

हूं कैसा योगी, किस योग में हूं मगन

हूं कैसा योगी, किस योग में हूं मगन

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हूं किस ओर अब चला मैं

कहीं रुका कहीं थका मैं

कहीं आत्मा का आभास

तो कहीं शरीर का देखा होता त्याग

हूं चिर निद्रा तक खोया मैं

कब तक भावों की अंजलि

वेदना बन तड़पाती रहेगी

सर्वस्व समर्पण चेतना बन

टीस टीस कर उकसाती रहेगी

हूं योगी सा योग में मगन

एकांत में समूचा नग्न

निर्मोही नहीं था

किसी की कराह हर पल पुकारती थी

मेरी मौन अवस्था को ललकारती थी

निर्लज्ज होकर सिर झुकाए चला जाता था

अब वही आवाज़ पीछा करती हैं

कहीं चला जाऊं चाहे

नोचती, खसोटती, मुंह बिलाती है

कैसे मेरा मौन मन उद्वेलित हो उठता है

किस शांति की तलाश में घाट घाट भटकता है

हूं ये कैसा योगी मैं और किस योग में हूं मगन

धधकती मन की ज्वाला में पल पल हो रहा भस्म

तो थका हूं चिरकाल से, अब चाहूं तर्पण मैं

तेरी मिथ्या भाषा नहीं, चाहूं आत्ममंथन का अर्पण मैं

कैसे हुई ये प्रतीक्षा चिरंतन, किस आशा में हुआ विलुप्त

कब खुद को गिरा दिया इतना, कैसे हुआ इतना पदच्युत

कैसा ये हठ योगी मैं, पाप के योग में था मगन

सच, सामने ही तो था, मैं कर रहा था अपना दहन

पीड़ा से अब सच मानो तो टूट रहा है अंग अंग

अच्छा हुआ इस योगी का भी हो गया मोह भंग।



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