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Prasun Upadhyay

Romance

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Prasun Upadhyay

Romance

जाड़े की गुनगुनी धूप हो तुम

जाड़े की गुनगुनी धूप हो तुम

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सुनो की मेरे जीवन में तुम जाड़े की गुनगुनी धूप सी हो,

सूरज की उन किरणों सी हो,

जिनके बिना ज़िन्दगी जम जाती है जाड़े में।


खिड़की से जब वो धूप कमरे में आके छु जाती है,

बड़ा सुकून मिलता है कि वो सुकून तो

तुम्हारे साथ होने जैसा ही है।


गरम कपड़ों पर भी उस गुनगुनी सी

धूप की गर्माहट एक आलस दे जाती है,

ठीक वैसा ही, जो तुम्हारे पास होने पर मालूम होता है।


कोहरा छटने के बाद उन किरणों का आना

ठीक वही हंसी दे जाता है, जो हर बार तुम्हें

देख कर आती है तुमसे मिलने पर आती है।


धूप आने पर घर से बाहर आकर बच्चों का बेफिक्र

खेलना ठीक वैसा ही है ,जब तुमसे मिलकर तुम्हारी बातें

सोचकर घर लौटता हूं मैं हर बात से बेपरवाह सा।


नरम सी धूप में घर के छत पर बैठ कर

अदरक वाली चाय पीना, बिल्कुल वैसा ही है जैसे तुम्हारे साथ

किसी इत्मीनान वाली जगह पर बैठ जी भर कर बातें करना। 


सनों की तुम जाड़े की उस गुनगुनी धूप सी हो मेरे जीवन में,

जिसके होने से सूरजमुखी सा खिल जाता हूं मैं।

जिसके होने भर से हर सांस खुश हो जाती है,

जिसके होने भर से मेरा रोम रोम में हो जाता हूं। 


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