हुस्न कमाल
हुस्न कमाल
देखा है मंज़र जब से इन आँखों ने ताज से तराशे हुस्न का...
बस एक ही तस्वीर बसती है निगाहों के तसव्वुर में
नैनों की सुराही से बहते चाहत के आबशार को थामा है जब से...
अपनी पलकों पर रंग गये है हज़ारों सपने लोचन की कटोरीयों में...
चखा है जब से जाम शबनमी लबों से हमारे होंठों ने,
ज़िन्दगी भर की तिश्नगी लिये फ़िरते है हम बेज़ार से...
मासूम सी हंसी जब आ ठहरती है गुलाब की पंखुड़ियों से नाजुक सिल्की होंठ पर मानों बाग के सारे फूल यूँ खिल गये बसंत की आहट पर...
मंदिर की घंटीयों सी आवाज़ नें घोला है रस कानों में जबसे,
हर अल्फ़ाज़ लगे आरती आयातों से पाक पवित्र...
चुड़ियों की खन-खन छेड़ जाती है
हज़ार तार दिल की दिवारों से बज उठती है रागिनी कोई पंचम के साज सी...
दूध से धवल सुर्ख गुलाबी जांय से पैरों से नूपुर की बजती रुनझुन सुनकर ड़ोल उठती है मेरे जिस्म में बसी रुह...
बेताब सी बेकल सी मचल उठती है
दीदार-ए-यार की एक झलक पाने को
मानों सदियों से हो इन्तज़ार एक प्यासी रुह को अपने ही साये का...
तौबा ये हुस्न है की सामान है कत्ल का॥